अमर बलिदान: जब कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला ने मौत को गले लगाया, पर कर्तव्य को नहीं छोड़ा

एक सच्चा योद्धा अपने जहाज को नहीं छोड़ता, वह उसके साथ डूब जाता है।” यह सिर्फ एक कहावत नहीं, बल्कि कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला की शौर्यगाथा है, जिन्होंने 1971 के भारत-पाक युद्ध में INS खुखरी के साथ वीरगति प्राप्त की। यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस जज्बे की है जो भारत के हर वीर योद्धा में बसता है।

“9 दिसंबर 1971: जब समंदर बना रणभूमि”

यह रात आम रातों जैसी नहीं थी। अरब सागर की लहरों के बीच भारतीय युद्धपोत INS खुखरी अपने कर्तव्य पर था। मगर अंधेरे में दुश्मन ताक में था—पाकिस्तानी पनडुब्बी PNS हंगोर, जो मौत का फरमान लेकर आई थी।

अचानक, पानी में हलचल हुई और एक टॉरपीडो सीटी की तरह चीखता हुआ INS खुखरी की तरफ बढ़ा। टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि जहाज कांप उठा। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, दूसरा टॉरपीडो लगा और जहाज मौत की गहराइयों में जाने लगा।


“कप्तान जो भागा नहीं, बल्कि मोर्चे पर डटा रहा!”

इस भीषण हमले में कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला के पास दो रास्ते थे—या तो खुद को बचाकर बाहर निकल जाएं, या अपने साथियों के लिए अंत तक डटे रहें। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना।

यह सिर्फ शब्द नहीं थे, यह बलिदान की शपथ थी। जब आखिरी नाव रवाना हुई, तब तक कैप्टन मुल्ला जहाज के डूबते डेक पर खड़े थे, सिर ऊंचा और नजरें अडिग।


“जहाज डूबा, पर एक योद्धा की कहानी अमर हो गई!”

INS खुखरी ने दो मिनट से भी कम समय में समुद्र की गहराइयों में दम तोड़ दिया। साथ ही, 18 अधिकारियों और 176 नौसैनिकों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। मगर, कैप्टन मुल्ला का यह बलिदान अमर हो गया।

उनकी वीरता को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। मगर सच्चा सम्मान यह है कि हर भारतीय नौसेना का अधिकारी आज भी उनका नाम गर्व से लेता है और उनके बलिदान को अपनी प्रेरणा मानता है।


“कहानी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बनी!”

आज जब हम वीरता की कहानियां पढ़ते हैं, तो कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। यह सिर्फ एक इंसान की कहानी नहीं, बल्कि कर्तव्य, बलिदान और अटूट साहस की मिसाल है।

क्योंकि कुछ लोग मौत से नहीं डरते, बल्कि उसे गले लगाकर इतिहास बना जाते हैं!


“नमन है उस योद्धा को, जिसने अपने देश के लिए समंदर को अपना अंतिम घर बना लिया!”

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